लहान मुले दुसरी तिसरीत गेली की त्यांना मनाचे श्लोक शिकविले जातात. हल्ली मुलांना शाळेत पर्यावरण हा विषय शिकविला जातो, तेव्हा या विषयाला अनुसरून हे ‘वनाचे श्लोक’ लिहिले आहेत. आजच्या काळात मुलांनी हे वनाचे श्लोक वाचून आचरणात आणले पाहिजे, तरच त्यातून वनौषधींचे आणि पर्यावरणाचे रक्षण साध्य होईल.   
फळ हे रोज खाता। बीज तें साठवावे।
सहज वन वाढते। बी पेरता फुकाचे।। १।।
एक लावा रोपटे। जपावा हाचि छंद।
काम हे जरी छोटे। पण आहे विश्ववंद्य।। २।।
तुळशी पाशी नमावे। मिळेल तो प्राणवायू।
वनौषधीस जपावे।  लाभेल दीर्घ आयु।। ३।।
वनी कीर्तनी तें। मन हे रिझवावे।
लावूनी रोप तें। वन हे वाढवावे।। ४।।   
मनी माणसा रे। वृक्षमनन करावे।
जनी सतत रे। वृक्षचिंतन करावे।। ५।।
वृक्षांचे ज्ञान घ्यावे। वृक्ष जतन करावे।
ज्ञान दान करावे। अवघे सज्ञान व्हावे।। ६।।
रोपे वाटीत जावे। करावा हाचि धर्म।
कथन फक्त नसावे। व्हावे रोपण कर्म।। ७।।
काळजी घेतां तुम्ही। एका तरी वृक्षाची।
नका करू तुम्ही। चिंता पावसाची।। ८।।
नको नुसती चर्चा। वृक्ष तें पूजनीय।
घडो पूजा अर्चा। वृक्ष तें वंदनीय।। ९।।
प्रदूषण वाढले। हे विश्व घातक।
दुर्मीळ झाले। वृक्ष पारिजातक।। १०।।
सदा हे आंगण। फुलवीत जावे।
सदा हे प्रांगण। वृक्ष संपन्न व्हावे।। ११।।
वनाचा श्लोक हा। आचरीत जावा।
पृथ्वीलोंक हा। सुखी करावा।। १२।।
शहरात झाले। झाड तें दुर्मीळ।
हातावर मोजले। वृक्ष तें नारळ।। १३।।
मुलांनो तुम्हा जेव्हा। असते ना सुट्टी।
एक तुम्ही तेव्हा। झाड लावा बिट्टी।। १४।।
अंगणास आहे। आली आता मरगळ।
इथे नाही उरली। झाडे तगर, कर्दळ।। १५।।
शहरात नाही। गाईंस चारा।
म्हणून नाही। गाईंस थारा।। १६।।
पाण्यासाठी बांधले। माणसाने धरण।   
त्यानेही बिघडले। सगळे पर्यावरण।। १७।।
आज आहे माणूस। प्रगतीच्या भरात।
वाहतो म्हणून। रोगांच्या प्रवाहात।। १८।।
काळवंडला आहे। शहराचा वर्ण।
आता तरी लावा। वेल तो गोकर्ण।। १९।।
त्रस्त झाली आता। शहरात मंडळी।
अरे लावा आता। पुन्हा झाडे सगळी।। २०।।
चिमणीस दाणा। आता नाही उरला।
घरटय़ासाठी वाडा। एकही ना उरला।। २१।।
पक्ष्यांनी घरटे। कुठे हो बांधावे?।
मुलांनी पक्षी तें। कुठे हो पाहावे?।। २२।।
नाहीच आता। कोंबडा आरवतो।
पहाट होता। मोबाइल वाजतो।। २३।।
पक्ष्यांची सकाळी। वाजत नाही सनई।
वाहनांच्या आवाजाने। जागी होते मुंबई।। २४।।
उंबर आणि पिंपळ। झाडे ही मंगल।
प्राणवायू देती। वृक्ष हे सुमंगल।। २५।।
शहरात वाढली। वाहनांची वर्दळ।
धूळ ही उडाली। धूर तो अमंगळ ।। २६।।
इथे काळवंडला। छातीचा रे भाता।
ध्वनी प्रदूषणाने। दुखत आहे माथां।। २७।।
कचरा रात्रंदिवस। इथे जळत आहे।
प्रदूषणाने वसुंधरेचा। पदर मळत आहे।। २८।।
सूर्याचा गोळा। सतत तळपत आहे।
जागतिक तापमान। नित्य वाढत आहे।। २९।।
निसर्गास माणूस। नित्य शोषत आहे।
निसर्गाचे दणके। नित्य सोसत आहे।। ३०।।
वाहनांचा शहरात।  सुकाळ आहे।
तिथे मात्र गावांत।  दुष्काळ आहे।। ३१।।
इथे शहर मस्त। विस्तारत आहे।
गावांत पाणी। दुरापास्त आहे।। ३२।।
जागतिक तापमान। वाढले आहे।
पर्यावरण तेही। बिघडले आहे।। ३३।।
झाडे तू माणसा। किती रे तोडली।   
तुझ्या पापांची। घटिका रे भरली।। ३४।।
नाही गेली वेळ। उधारी फेड माणसां।   
समजू नको खेळ। सुधार तू माणसां।। ३५।।
संपत्ती निसर्गाची। माणसां तू लुटली।
साडी जशी द्रौपदीची। कौरवांनी ओढली।। ३६।।
रासायनिक खते। जीवसृष्टीत भिनली।
नसíगक खते। शेतीसाठी चांगली।। ३७।।
शेण, गोमुत्राचे खत। फक्त तेंच वापरा।
येणार नाही आफत। विचार तुम्ही करा।। ३८।।
झाडे ही निरनिराळी। आंबट गोड सगळी।   
पाने, फुले, मुळे, साली। औषधे अमूल्य सगळी।। ३९।।
आयुर्वेदाचा वारसा। आहे सर्व जगासाठी।   
खजाना औषधींचा। जपा भावी पिढीसाठी।। ४०।।

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